पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के आने से पहले, अहले-किताब (यहूदी और ईसाई) अपनी किताबों में दिए गए वादे के मुताबिक़ आख़िरी नबी का इंतज़ार कर रहे थे। मगर जब पैग़म्बर (सल्ल.) आए, तो कुछ ने ईमान क़ुबूल किया और कुछ ने इन्कार कर दिया। इससे कुछ अहम सबक़ मिलते हैं:
ऊपरी इल्म vs रूहानी रौशनी
सतही ज्ञान की कमी: सिर्फ़ किताब पढ़ने या उसके ऊपरी मायने समझने से ईमान नहीं आता। असली ईमान तब आता है जब दिल में इल्म-ए-बातिन (आंतरिक ज्ञान) और रौशनी पैदा हो।
मिसाल: शैतान (इब्लीस) और अबू जहल ने पैग़म्बर (सल्ल.) को देखा, मगर उनकी रूहानी रौशनी नहीं पहचानी। ईमान के लिए उनकी हक़ीक़ी शख़्सियत को पहचानना ज़रूरी है।
इल्हामी इल्म vs पढ़ा-लिखा इल्म
दो तरह का ज्ञान:
इल्म-ए-ज़ाहिर: किताबों से पढ़कर हासिल किया गया ज्ञान, जो दिल को नहीं छूता।
इल्म-ए-इल्हामी: अल्लाह की तरफ़ से दिल में उतरा हुआ ज्ञान, जो सच्चाई की तरफ़ ले जाता है।
मिसाल: खेत कुएँ के पानी से हरा नहीं होता, बारिश का पानी चाहिए। ऐसे ही दिल सिर्फ़ इंसानी ज्ञान से नहीं, बल्कि अल्लाह की रहमत से जगमगाते हैं।
उलमा की बड़ी ज़िम्मेदारी
अहले-किताब के उलमा (विद्वान) पर अल्लाह का अज़ाब इसलिए आया क्योंकि उन्होंने जानते-बूझते सच्चाई को छुपाया। ज्ञान रखने के बावजूद गुमराह करना बड़ा गुनाह है। यह सबक़ हर उस शख़्स के लिए है जो जानकर भी सच को नहीं मानता।
रहमत की नज़रें
हर कोई पैग़म्बर (सल्ल.) की नूर (रौशनी) को नहीं समझ पाता। जैसे चमगादड़ सूरज की रौशनी से फ़ायदा नहीं उठा सकता, वैसे ही अहंकार, दुनियादारी या हसद (ईर्ष्या) से भरे दिल हिदायत नहीं पा सकते।
पैग़म्बर (सल्ल.) का आना एक कसौटी बन गया:
सच्चे दिल वाले: उनकी बातों ने दिलों को रौशन कर दिया।
ज़िद्दी लोग: दुनिया के दिखावे और ऊपरी ज्ञान में उलझे रहे।
क़ुरआन का यही उसूल है:
مَن يَهْدِ اللَّـهُ فَهُوَ الْمُهْتَدِ وَمَن يُضْلِلْ فَلَن تَجِدَ لَهُ وَلِيًّا مُّرْشِدًا
"जिसे अल्लाह हिदायत दे, वही सीधे रास्ते पर है। और जिसे गुमराह करे, उसका कोई हमदर्द नहीं।"
(सूरह अल-कहफ़ 18:17)
ईमान सिर्फ़ दिमाग़ी सहमति नहीं, बल्कि अल्लाह की तरफ़ से दिल को मिलने वाली नेमत है। जो दिल पैग़म्बर (सल्ल.) और क़ुरआन की नूर को क़ुबूल कर लेता है, वही कामयाब होता है।
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Surah Ayat 4 Tafsir