अहले-किताब (यहूदी, ईसाई) और मुसलमानों को पैग़म्बर (सल्ल.) के ज़रिए वही हुक्म दिए गए जो उनकी अपनी किताबों (तौरात, इंजील) में भी थे, जैसे:
सिर्फ़ अल्लाह की इबादत।
अच्छे अक़ीदे अपनाना।
बुरे लोगों से दूरी।
नमाज़ (सलात) और ज़कात अदा करना (हालाँकि तरीक़ा अलग है)।
फिर भी इन्कार क्यों?
दिखावा vs दिल की सफ़ाई: उन्होंने रस्मों को अहमियत दी, मगर दिल की पाकीज़गी (इख़्लास) को नज़रअंदाज़ किया। अस्ल ईमान के लिए चाहिए:
शिर्क और बुराई से नफ़रत।
ज़ाहिरी पहचान (लिबास, अख़लाक़) में मुसलमान बनना।
उलमा की मक्कारी: उनके विद्वानों ने किताबों को बदल डाला ताकि अपनी हुकूमत क़ायम रख सकें।
इबादत की अहमियत
नमाज़: वक़्त पर, दिल लगाकर पढ़ना—ये अल्लाह से जुड़ने का ज़रिया है।
ज़कात: माल को पाक करना—ये अल्लाह की रज़ा हासिल करने का तरीक़ा।
क़ुरआन कहता है:
وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّـهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ
"उन्हें बस यही हुक्म दिया गया था कि अल्लाह की इबादत इख़्लास के साथ करें।"
(सूरह अल-बय्यिना 98:5)
अल्लाह का हुक्म—"सिर्फ़ मेरी इबादत करो"—हज़रत आदम (अलै.) के ज़माने से आज तक बदला नहीं। इस आयत से दो अहम बातें सामने आती हैं:
नए मुसलमानों पर फ़र्ज़
ईमान लाने के बाद नमाज़-ज़कात जैसे अमल फ़र्ज़ हो जाते हैं। "उन्हें हुक्म दिया गया" से साफ़ है कि ये निजी पसंद नहीं, बल्कि अल्लाह का आदेश है।
अक़ीदा और अमल का ताल्लुक़
बिना अमल के ईमान बेकार है। क़ुरआन उन ग़लत फ़िरक़ों को ख़ारिज करता है जो:
तारीख़ में: यहूदी-ईसाई जो दुनिया छोड़कर मठों में चले गए।
आज के ज़माने में:
जुआरी फ़क़ीर: नशा करके इबादत का दावा करने वाले।
मर्जिय्या/रफ़्ज़ी: क़ुरआन छोड़कर लीडरों की बात मानने वाले।
अल्लाह ऐसे मुनाफ़िक़ों को बुरा बताता है:
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لِمَ تَقُولُونَ مَا لَا تَفْعَلُونَ...
"ऐ ईमान वालो! जो बात करते हो, वो करते क्यों नहीं? अल्लाह को ये बेहद नापसंद है।"
(सूरह अस-सफ़ 61:2-3)
सारे दीनों का मक़सद एक: तौहीद, नमाज़, ज़कात—ये हर नबी ने सिखाए।
दिल की सच्चाई ज़रूरी: रस्में नहीं, बल्कि इख़्लास (ईमान की शुद्धता) अहम है।
नक़ली फ़िरक़ों से दूरी: ईमान और अमल को अलग करने वाले गुमराह हैं।
क़ुरआन ये बता देता है कि इबादत का ये सिलसिला हज़रत आदम (अलै.) से चला आ रहा है। जो इसे बिगाड़ेगा, वही नुक़सान में रहेगा।
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Surah Ayat 5 Tafsir