ऐ ईमान लाने वालों! तुम यहूदियों और ईसाइयों को अपना दोस्त न बनाओ [164]। वे आपस में ही एक-दूसरे के दोस्त हैं [165]। और तुम में से जो कोई उन्हें अपना दोस्त बनाएगा, तो वह उन्हीं में से है। बेशक, अल्लाह ज़ालिम लोगों को हिदायत नहीं देता [166]।
यह आयत हज़रत उबादाह बिन सामित रज़ि॰ और अब्दुल्लाह बिन उबै मुनाफ़िक़ के बारे में नाज़िल हुई। हज़रत उबादाह ने यहूदी सरदारों से अपनी दुनियावी दोस्ती तोड़ दी, जबकि अब्दुल्लाह बिन उबै उनसे दोस्ती पर अड़ा रहा, बावजूद इसके कि वह ज़बानी अल्लाह और रसूल से मोहब्बत का दावा करता था। इस वाक़िए से ये हुक्म निकलता है कि यहूद व नसारा से गहरी दोस्ती रखना और उनसे मदद लेना (बग़ैर शरई मजबूरी के) हराम है। इससे यह भी साबित हुआ कि ग़ैर-मुस्लिमों से घनिष्ठ संबंध रखना निफ़ाक़ की निशानी है।
वे आपस में ही एक-दूसरे के दोस्त हैं — इसका मतलब है कि ये लोग इस्लाम के मुक़ाबले में एकजुट हो जाते हैं, हालाँकि आपस में उनके मतभेद और दुश्मनी भी मौजूद हैं। क़ुरआन में कहा गया:
"हमने उनके बीच दुश्मनी और नफ़रत डाल दी" (सूरा अस-सफ़्फ़ 61:64)
"तुम उन्हें एक गिरोह समझोगे, मगर उनके दिल बटे हुए होंगे" (सूरा हशर 59:14)
हज़रत अबू मूसा अशअरी रज़ि॰ ने एक ईसाई को कातिब (लेखक) बनाया था। हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ि॰ ने नाराज़गी जताई और फ़रमाया: "जब वह मर जाएगा तो क्या करोगे?" — इससे यह सबक़ मिलता है कि इस्लामी हुकूमत में ग़ैर-मुस्लिमों को एतिमाद वाले और हुकूमत के ओहदों पर नहीं रखा जाना चाहिए, ख़ासकर वो पद जो फ़ैसलों और निज़ाम चलाने से जुड़े हों।
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सूरह अल-मायदा आयत 51 तफ़सीर