और जो कोई हिदायत के वाज़ेह हो जाने के बाद रसूल का विरोध करे [354], और मुसलमानों के रास्ते के अलावा किसी और रास्ते की पैरवी करे [355], तो हम उसे उसी तरफ़ मोड़ देंगे जिधर वह मुड़ा है, और उसे जहन्नम में दाखिल करेंगे। और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।
इससे ये हक़ीक़त मालूम होती है कि जिन तक इस्लाम का पैग़ाम नहीं पहुँचा, वे शरई हुक्मों के लिए मुहासिब नहीं होते। अगर वे अल्लाह की तौहीद पर ईमान रखते हैं, तो यह उनके लिए काफी हो सकता है। जो गुनाह वे नादानी या जहालत में करें, वह जानबूझकर रसूल ﷺ की मुख़ालिफ़त नहीं मानी जाएगी। मगर इल्म और समझ के बाद किया गया विरोध ज़िम्मेदारी लाता है। याद रहे, अक़ीदे में विरोध करना कुफ़्र, और अमल में विरोध करना गुनाह होता है।
यहां से यह समझ में आता है कि मुसलमानों के सामूहिक रास्ते पर चलना ज़रूरी है। यह साबित करता है कि तक़लीद—यानि चारों इमामों और सलफ़-ए-सालेहीन के नक़्शे-क़दम पर चलना—मक़बूल और मुस्तहसिन है, क्योंकि यह उम्मत के आम रास्ते के मुताबिक़ है। इसी तरह ख़त्मे-क़ुरआन, फ़ातिहा, मीलाद और उर्स जैसे आमाल जो आम मुसलमान करते हैं, वे सवाब के काम माने जाते हैं। क्यूंकि ये उम्मत के बहुसंख्यक मुसलमानों की राह है, इसलिए इन्हें क़ाबिले-अहमियत समझा गया है। जैसा कि अल्लाह फ़रमाता है: “और हमने तुम्हें सबसे बेहतरीन उम्मत बनाया, ताकि तुम लोगों पर गवाही दो।” (सूरा अल-बक़रा, 2:143)
इसलिए, हिदायत मिलने के बाद उम्मत के रास्ते से हटना बहुत बड़ी ग़लती है और इसका अंजाम जहन्नम जैसा बुरा ठिकाना है।
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सूरह अन-निसा आयत 115 तफ़सीर