ऐ ईमानवालो! अल्लाह पर, उसके रसूल पर, उस किताब पर जो उसने अपने रसूल पर नाज़िल की [404], और उन किताबों पर जो पहले नाज़िल की गई थीं [405] — ईमान लाओ। और जो कोई अल्लाह का, उसके फ़रिश्तों का, उसकी किताबों का, उसके रसूलों का और आख़िरत के दिन का इंकार करे [407], तो वह यक़ीनन बहुत दूर की गुमराही में जा पड़ा [408]।
"ऐ ईमानवालो!" यह पुकार दो अर्थों को समेटे हुए है:
एक — जो सिर्फ जुबान से ईमान लाए हैं, अब दिल से सच्चे और मुकम्मल तौर पर ईमान लाओ।
दूसरा — जो पहले से सच्चे दिल से ईमान लाए हैं, अब उसी ईमान पर दृढ़ और स्थिर रहो।
इससे यह मालूम होता है कि वही ईमान क़ाबिले-क़द्र और मुकर्रम है जो मौत तक इंसान के साथ रहे। साथ ही यह भी कि रसूल ﷺ पर ईमान लाना, अल्लाह पर ईमान लाने के बराबर है, जिससे यह साबित होता है कि इन दोनों का ईमान आपस में गहराई से जुड़ा हुआ है।
"जो उसने अपने रसूल पर नाज़िल की" — यह आयत क़ुरआन की तरफ़ इशारा कर रही है, जो तेइस वर्षों में रसूलुल्लाह ﷺ पर नाज़िल हुआ।
"नाज़िल की" (माज़ी सिग़ा) और "पहले नाज़िल की गई किताबें" (मज़ीद माज़ी और म Passive) के अल्फ़ाज़ से यह मालूम होता है कि क़ुरआन पर ईमान लाना, रसूल ﷺ की सच्चाई को मानने पर मुनहसिर है।
यानी क़ुरआन की सच्चाई, रसूल की सच्चाई से साबित होती है, इसलिए रसूल पर ईमान पहले आता है।
मुसलमानों पर तौरेत, ज़बूर और इंजील जैसी किताबों की आसमानी हकीकत को मानना फ़र्ज़ है।
मगर अमल और ताबेदारी सिर्फ़ क़ुरआन के हुक्मों की होगी, क्योंकि अब वही आख़िरी और महफूज़ शरीअत है।
इसलिए पिछली किताबों पर ईमान तो होगा, मगर शरीअत के तौर पर सिर्फ़ क़ुरआन क़ाबिले-अमल है।
इस हिस्से से मालूम होता है कि अगर कोई एक भी चीज़ — अल्लाह, उसके फ़रिश्ते, किताबें, रसूल या आख़िरत — का इंकार कर दे, तो वह सबका मुंकर हो जाता है।
यानी रसूलुल्लाह ﷺ का इंकार करना, अल्लाह और बाकी सभी रुक्नों का इंकार करने के बराबर है।
"और" (وَ) का लफ़्ज़ सबको आपस में जोड़ रहा है, जिससे यह हुक्म निकलता है कि ईमान में तफरीक़ (चुनिंदा मानना) मुमकिन नहीं।
"बहुत दूर की गुमराही" से मुराद वह गंभीर और मुकम्मल भटकाव है जो इंसान को इस्लाम से बाहर निकाल देता है।
गुमराही की दो किस्में हैं:
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सूरह अन-निसा आयत 136 तफ़सीर