कुरान - 4:136 सूरह अन-निसा अनुवाद, लिप्यंतरण और तफसीर (तफ्सीर).

يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِي نَزَّلَ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِن قَبۡلُۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱللَّهِ وَمَلَـٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا

अनुवाद -

ऐ ईमानवालो! अल्लाह पर, उसके रसूल पर, उस किताब पर जो उसने अपने रसूल पर नाज़िल की [404], और उन किताबों पर जो पहले नाज़िल की गई थीं [405] — ईमान लाओ। और जो कोई अल्लाह का, उसके फ़रिश्तों का, उसकी किताबों का, उसके रसूलों का और आख़िरत के दिन का इंकार करे [407], तो वह यक़ीनन बहुत दूर की गुमराही में जा पड़ा [408]।

सूरह अन-निसा आयत 136 तफ़सीर


📖 सूरा अन-निसा – आयत 136 की तफ़्सीर

 

✅ [404] सच्चा और स्थायी ईमान अपनाने का हुक्म

"ऐ ईमानवालो!" यह पुकार दो अर्थों को समेटे हुए है:
एक — जो सिर्फ जुबान से ईमान लाए हैं, अब दिल से सच्चे और मुकम्मल तौर पर ईमान लाओ।
दूसरा — जो पहले से सच्चे दिल से ईमान लाए हैं, अब उसी ईमान पर दृढ़ और स्थिर रहो।
इससे यह मालूम होता है कि वही ईमान क़ाबिले-क़द्र और मुकर्रम है जो मौत तक इंसान के साथ रहे। साथ ही यह भी कि रसूल ﷺ पर ईमान लाना, अल्लाह पर ईमान लाने के बराबर है, जिससे यह साबित होता है कि इन दोनों का ईमान आपस में गहराई से जुड़ा हुआ है

✅ [405] क़ुरआन पर ईमान की जड़ रसूल ﷺ पर ईमान है

"जो उसने अपने रसूल पर नाज़िल की" — यह आयत क़ुरआन की तरफ़ इशारा कर रही है, जो तेइस वर्षों में रसूलुल्लाह ﷺ पर नाज़िल हुआ
"नाज़िल की" (माज़ी सिग़ा) और "पहले नाज़िल की गई किताबें" (मज़ीद माज़ी और म Passive) के अल्फ़ाज़ से यह मालूम होता है कि क़ुरआन पर ईमान लाना, रसूल ﷺ की सच्चाई को मानने पर मुनहसिर है
यानी क़ुरआन की सच्चाई, रसूल की सच्चाई से साबित होती है, इसलिए रसूल पर ईमान पहले आता है।

✅ [406] पिछली किताबों पर ईमान, लेकिन उनके अहकाम पर अमल नहीं

मुसलमानों पर तौरेत, ज़बूर और इंजील जैसी किताबों की आसमानी हकीकत को मानना फ़र्ज़ है
मगर अमल और ताबेदारी सिर्फ़ क़ुरआन के हुक्मों की होगी, क्योंकि अब वही आख़िरी और महफूज़ शरीअत है
इसलिए पिछली किताबों पर ईमान तो होगा, मगर शरीअत के तौर पर सिर्फ़ क़ुरआन क़ाबिले-अमल है

✅ [407] किसी एक ईमान के रुक्न का इंकार, सबका इंकार है

इस हिस्से से मालूम होता है कि अगर कोई एक भी चीज़ — अल्लाह, उसके फ़रिश्ते, किताबें, रसूल या आख़िरत — का इंकार कर दे, तो वह सबका मुंकर हो जाता है
यानी रसूलुल्लाह ﷺ का इंकार करना, अल्लाह और बाकी सभी रुक्नों का इंकार करने के बराबर है
"और" (وَ) का लफ़्ज़ सबको आपस में जोड़ रहा है, जिससे यह हुक्म निकलता है कि ईमान में तफरीक़ (चुनिंदा मानना) मुमकिन नहीं

✅ [408] गुमराही की दो किस्में – क़रीबी और दूर

"बहुत दूर की गुमराही" से मुराद वह गंभीर और मुकम्मल भटकाव है जो इंसान को इस्लाम से बाहर निकाल देता है
गुमराही की दो किस्में हैं:

  • दूर की गुमराही — जैसे कुफ़्र, तबर्रा, या किसी भी ईमान के रुक्न का खुला इंकार, जिससे आदमी इस्लाम से निकल जाता है
  • क़रीबी गुमराही — जैसे फिरक़ाबंदी, चारों इमामों की राह से हटना, जो कुफ़्र नहीं मगर संगीन गुमराही है
    पहली किस्म कुफ़्र है, जबकि दूसरी भी सही राह से हटने वाली है और उस पर रुजू ज़रूरी है

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