कुरान - 4:97 सूरह अन-निसा अनुवाद, लिप्यंतरण और तफसीर (तफ्सीर).

إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَـٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمۡۖ قَالُواْ كُنَّا مُسۡتَضۡعَفِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ قَالُوٓاْ أَلَمۡ تَكُنۡ أَرۡضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةٗ فَتُهَاجِرُواْ فِيهَاۚ فَأُوْلَـٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا

अनुवाद -

"जिन लोगों की रूह फ़रिश्ते इस हाल में क़ब्ज़ करेंगे कि वो अपने ही ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे [311], तो फ़रिश्ते उनसे पूछेंगे — ‘तुम किस हालत में थे?’ वो कहेंगे — ‘हम तो ज़मीन में कमज़ोर थे।’ फ़रिश्ते कहेंगे — ‘क्या अल्लाह की ज़मीन इतनी खुली नहीं थी कि तुम हिजरत कर लेते [312]?’ तो इनका ठिकाना जहन्नम है, और वो क्या ही बुरा ठिकाना है।"

सूरह अन-निसा आयत 97 तफ़सीर


📖 सूरा अन-निसा – आयत 97 की तफ़्सीर

 

✅ [311] वुज़ूरे-वह़ी — लाज़मी हिजरत से भागना

  • ये आयत उन मुसलमानों के बारे में उतरी जो मक्का में ही रह गए जबकि हिजरत (मदीना की तरफ़) फर्ज़ हो चुकी थी और उनके पास जाने की पूरी क़ुदरत थी।
  • उन्होंने काफ़िरों के बीच रहना पसंद किया, नतीजा ये हुआ कि बदर के दिन वो काफ़िरों की फ़ौज में शामिल होकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ लड़ने पर मजबूर हो गए और मारे गए।
  • अल्लाह ने उन्हें "अपने ऊपर ज़ुल्म करने वाले" कहा, क्योंकि:
    • इमान और अमल को बचाने के लिए हिजरत ज़रूरी थी।
    • बहाने बनाकर काफ़िरों के माहौल में रहना, खुद अपनी तबाही चुनना है।
  • मक्का में काबा होने के बावजूद, जब नबी ﷺ हिजरत कर चुके थे, वहाँ रहना रूहानी तौर पर खाली था—जैसे बारात बिना दूल्हे के बे-मायने हो जाती है।

✅ [312] ग़लत बहानों की कोई जगह नहीं

  • जिन लोगों ने कहा, "हम तो कमज़ोर थे" — असल में वो तंदरुस्त और क़ाबिल थे, बस दुनियावी आराम या कायरपन की वजह से हिजरत नहीं की।
  • इस आयत में साफ़ कर दिया गया कि:
    • झूठा बहाना बना कर काफ़िरों के बीच इमान छिपाकर रहना (ताक़िय्या) सिर्फ़ आराम या जान बचाने के लिए जायज़ नहीं
    • जब इमान और अमल खतरे में हों, हिजरत फ़र्ज़ हो जाती है।
  • साथ ही, ये आयत अप्रत्यक्ष तौर पर बताती है कि पहले तीन ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन हक़ और इंसाफ़ पर थे, क्योंकि:
    • हज़रत अली (RA) ने उनके खिलाफ़ न तो बग़ावत की, न कहीं हिजरत की।
    • अगर मक्का या मदीना ग़ैर-इस्लामी बन गए होते, तो हज़रत अली या इमाम हुसैन (RA) ज़रूर लड़ते या हिजरत करते—जैसा उन्होंने बाद में हक़ के लिए किया।

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