और अगर किसी औरत को अपने शौहर से ज़्यादती या बेरुख़ी का डर हो [384], तो उनमें आपसी सुलह हो जाए तो इसमें कोई गुनाह नहीं है [385], और सुलह तो बेहतर ही है [386]। लेकिन दिलों में लालच बसा हुआ है [387], और अगर तुम भलाई करो और अल्लाह से डरते रहो, तो बेशक अल्लाह तुम्हारे कामों से खूब वाक़िफ़ है [388]।
अगर किसी औरत को अपने शौहर की तरफ़ से नाफ़रमानी, बेरुख़ी या ज़ुल्म का अंदेशा हो — जैसे कि खाने-पीने में कमी करना, मारना-पीटना, बुरा बर्ताव, या प्यार और तवज्जो से महरूम करना — तो यह उसकी परेशानी का सबब बनता है और सुलह की ज़रूरत को पैदा करता है।
अगर बीवी अपनी ख़ुशी से कुछ हुकूक़ माफ़ कर दे, ताक़ि निकाह क़ायम रहे, या शौहर उसकी कमज़ोरियों को नजरअंदाज़ कर दे और इंसाफ़ व सब्र से काम ले — तो ऐसी आपसी सुलह जायज़ है। इसमें कोई गुनाह नहीं, बल्कि दोनों सुकून से ज़िंदगी गुज़ार सकते हैं।
हालाँकि तलाक़ जायज़ है, लेकिन यह अल्लाह को सबसे ज़्यादा नापसंद हलाल अमल है। इसलिए आपसी समझौता, चाहे उसमें थोड़ा समझौता करना पड़े, तलाक़ से कहीं बेहतर है। इस्लाम निकाह को बचाने को तरजीह देता है।
इस आयत में बताया गया कि लालच इंसान की फ़ितरत में है। हर कोई अपने आराम को अहमियत देता है और दूसरों के लिए कुर्बानी देने में कोताही करता है — यहाँ तक कि शादी जैसे रिश्ते में भी। इस हकीकत को समझकर ही अक़्लमंदी और इख़लास से रिश्तों को निभाया जा सकता है।
अल्लाह शौहर को याद दिलाता है कि अगर उसके दिल में बीवी के लिए मोहब्बत कम हो भी गई हो, फिर भी:
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सूरह अन-निसा आयत 128 तफ़सीर