मगर वे लोग जो ऐसे क़ौम से जुड़े हों [282] जिनके और तुम्हारे दरम्यान मुआहिदा (संधि) हो [283], या वे तुम्हारे पास इस हाल में आएं कि उनके दिल में न तुमसे लड़ने की ताक़त हो [284] और न अपनी क़ौम से लड़ने की। और अगर अल्लाह चाहता तो उन्हें तुम पर क़ाबू दे देता, फिर वे तुमसे लड़ते। तो अगर वे तुमसे अलग हो जाएं, तुमसे लड़ाई न करें और तुम्हें सुलह का पैग़ाम दें [285], तो अल्लाह ने उनके ख़िलाफ़ तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं रखा [286]।
"जो जुड़े हों" से मुराद है कि उन लोगों को क़त्ल न किया जाए जो बिल्कुल तटस्थ हैं और जिनके दिल में लड़ने की ताक़त नहीं—न वे तुमसे लड़ते हैं, न अपने काफ़िर साथी की मदद करते हैं, न तुम्हारे साथ मिलकर उनके ख़िलाफ़ लड़ते हैं। यह हुक्म क़त्ल के बारे में है, दोस्ती के बारे में नहीं, क्योंकि काफ़िरों से दोस्ती हर हाल में नाजायज़ है—चाहे वे लड़ने वाले हों, गैर-लड़ाकू, पनाह लेने वाले या संधि-भागीदार। इससे सबक़ मिला कि मुआहिदा पूरा करना फ़र्ज़ है, चाहे वह गैर-मुसलमान से ही क्यों न हो।
इससे मुराद वे गैर-मुस्लिम हैं जिनसे पहले ही सुलह का समझौता हो चुका है। उनसे लड़ाई न करो और मुआहिदे की शर्तों को पूरा करो। यह हुक्म सिर्फ़ क़त्ल से संबंधित है, दोस्ती से नहीं—क्योंकि दोस्ती हर हाल में मना है।
इससे मालूम हुआ कि कभी-कभी मुसलमानों की इत्तेहाद और स्थिरता काफ़िरों के दिलों में डर पैदा कर देती है। यह डर अल्लाह की तरफ़ से एक नेमत और रहमत है जो उम्मत की हिफ़ाज़त के लिए डाली जाती है।
पिछली आयत उन लोगों के बारे में थी जिनसे पहले ही मुआहिदा मौजूद था। यहाँ उन काफ़िरों का ज़िक्र है जो अब सुलह की पेशकश करना चाहते हैं—चाहे पहले कोई समझौता न हुआ हो। इसमें कोई तकरार नहीं, बल्कि यह या तो नए सुलह समझौते की बात है या पहले के हुक्म की तफ़्सील है।
मतलब यह कि जब तुम्हें ऐसे लोगों से लड़ने की अल्लाह की इजाज़त न हो और वे सुलह की पेशकश करें, तो तुम्हें उसे क़ुबूल करना होगा। हालाँकि बाद में यह आयत "मशरिकों को क़त्ल करो" वाले हुक्म से मंसूख़ हुई, लेकिन इससे यह उसूल साबित हुआ कि मुसलमान हाकिम हालात और इस्लामी मसलेहत के मुताबिक़ सुलह भी कर सकता है या उसे ठुकरा सकता है।
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सूरह अन-निसा आयत 90 तफ़सीर