ऐ ईमान वालों! ईमानवालों को छोड़कर काफ़िरों को दोस्त न बनाओ [423]। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह के पास तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई खुला सबूत हो जाए [424]?
इस आयत में अल्लाह तआला मोमिनों को साफ़ हिदायत देता है कि वे काफ़िरों को दिली दोस्त न बनाएं, ख़ासकर जब यह दोस्ती मुसलमानों की दुश्मनी की कीमत पर हो। ऐसा रवैया मुनाफ़िक़ों की पहचान है और सच्चे मोमिनों को इससे सख़्त परहेज़ करना चाहिए। इस हिदायत का यह मतलब नहीं कि इंसान अपने ग़ैर-मुस्लिम रिश्तेदारों जैसे माता-पिता या भाई-बहनों से रिश्ता तोड़ ले, बल्कि इसका मतलब यह है कि उनके साथ गहरे जज़्बाती लगाव, वफ़ादारी और मोहब्बत का रिश्ता न रखा जाए जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ हो। इसी तरह किताब वालों की औरतों से निकाह की इजाज़त है, लेकिन उनसे दिली यारी और वफ़ादारी हरगिज़ नहीं हो सकती। दिल की मोहब्बत और वफ़ादारी सिर्फ़ मोमिनों के लिए होनी चाहिए।
आगे अल्लाह तआला सवालिया अंदाज़ में फ़रमाता है — क्या तुम पसंद करते हो कि क़ियामत के दिन अल्लाह के सामने तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई खुला सबूत पेश हो? इसका मतलब यह है कि जिस दिन हर इंसान अपने साथियों के साथ उठाया जाएगा, उस दिन अगर किसी की दोस्ती और वफ़ादारी काफ़िरों के साथ साबित हो गई — ख़ासतौर पर मुसलमानों के मुक़ाबले में — तो वही उसकी मुनाफ़िक़त का खुला सबूत होगा। फिर वह अल्लाह की सज़ा से नहीं बच सकेगा। इस आयत का मक़सद सख़्त चेतावनी देना है कि मुसलमानों को चाहिए कि अपनी मोहब्बत, वफ़ादारी और दोस्ती की हदें ईमान और उम्मत के साथ बांधे रखें, वरना कहीं यह ग़लत दोस्ती जहन्नम तक न पहुँचा दे।
अल्लाह हमें सही फ़ैसले और सही साथियों की तौफ़ीक़ अता फरमाए। आमीन।
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सूरह अन-निसा आयत 144 तफ़सीर