6. यक़ीनन जो लोग काफ़िर हैं [19], उनके लिए बराबर है [20] — चाहे आप उन्हें डराएँ या न डराएँ, वो ईमान नहीं लाएंगे। [21]
यहां "काफ़िर" से मुराद वो लोग हैं जो:
👉 ये ऐसे लोग हैं जिन पर तबलीग़ (दावत) या डराने का कोई असर नहीं होता।
जैसे कोयले को धोने से वो सफ़ेद नहीं होता, ऐसे ही इन लोगों का दिल भी सख़्त और काला हो चुका है।
"बराबर है" का मतलब यह नहीं कि नबी ﷺ का काम बेअसर है — बल्कि इसका मतलब यह है कि इन लोगों के लिए डराना या न डराना कोई फर्क नहीं डालता।
➡️ मगर नबी ﷺ की ज़िम्मेदारी पूरी हो जाती है जब वो अल्लाह का पैग़ाम पहुँचा देते हैं — चाहे सामने वाला माने या न माने।
तबलीग़ का असर सामने वाले की नियत और दिल की हालत पर होता है, न कि सिर्फ़ बोलने वाले की बातों पर।
👉 इसलिए इस आयत में यह नहीं कहा गया कि "आपके लिए बराबर है", बल्कि कहा गया — "उनके लिए बराबर है"।
यह बात कुछ ख़ास काफ़िरों के लिए है — जैसे:
➡️ ये लोग वो हैं जो अंत तक काफ़िर ही रहेंगे, क्योंकि अल्लाह के इल्म में पहले से तय था कि ये लोग ईमान नहीं लाएंगे।
👉 इस आयत से ये भी साबित होता है कि अल्लाह ने अपने प्यारे नबी ﷺ को ये इल्म भी अता फरमाया था कि कौन ईमान लाएगा और कौन नहीं।
हालाँकि ये आयत कुछ ख़ास लोगों के लिए थी, लेकिन इसमें दी गई बात एक आम उसूल (general rule) को भी बयान करती है — कि कुछ लोगों के दिल इतने सख़्त हो जाते हैं कि उन पर कोई असर नहीं होता।
नतीजा:
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सूरह अल-बक़रा आयत 6 तफ़सीर